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रविवार, 25 सितंबर 2016

दवा मूल्य नियंत्रण और यथार्थ

                                                     देश में आवश्यक दवाओं के मूल्यों को उचित दरों पर बेचे जाने के लिए समय समय पर जारी किये जाने वाले ड्रग प्राइस कण्ट्रोल ऑर्डर्स (डीपीसीओ) के माध्यम से निश्चित तौर पर रोगियों को सस्ती दवाओं का विकल्प मिलना शुरू हो गया है पर जिस तरह से एक बार सूचीबद्ध किये जाने के बाद सरकार और मूल्य नियंत्रण प्रणाली को देखने वालों की तरफ से दोबारा इस बात पर कोई विमर्श ही नहीं किया जाता है कि निर्धारित की गयी दवाएं बाजार में अब किस मूल्य पर उपलब्ध हो रही है तो उससे आमलोगों तक पहुँचने वाले लाभ को कैसे आँका जा सकता है ? एक नए चलन के रूप में दवा कंपनियों की तरफ से अब डीपीसीओ में आने वाली दवाओं के उत्पादन या उनके साथ किसी अन्य दवा को डालकर उसका मूल्य भी बढ़ाने के रास्ते खोल दिए गए हैं तो आम रोगियों को उससे क्या लाभ मिलने वाले हैं ? डीपीसीओ नीति में आज जो बड़ी कमी दिखाई दे रही है उस पर किसी का ध्यान भी नहीं जा रहा है जिससे सरकार की तरफ से घोषित की गयी सूची की अधिकांश दवाइयां रोगियों को उतनी आसानी से उपलब्ध नहीं हो पा रही हैं जितनी पहले हो जाया करती थीं तो क्या नीति में हमें फिर से बदलाव करने की आवश्यकता नहीं है जो आम लोगों तक उचित मूल्य पर दवाओं की उपलब्धता को सुनिश्चित कर सके ?
                                             उदाहरण के तौर पर डॉक्सीसाइक्लिन नाम की एंटीबॉयोटिक जो आज भी बहुत कारगर है डीपीसीओ में आने से पहले ६/७ रूपये की मिलती थी पर इसका मूल्य निर्धारण करते समय इस बात पर कोई विचार ही नहीं किया गया कि क्या दवा कंपनियां इसे १ रु का बनाकर बेचने में दिलचस्पी दिखाएंगीं ? आज जिन कंपनियों द्वारा इस दवा को बनाया जा रहा है तो उनमें से कोई इसके साथ बेहद सस्ती लैक्टोबैसिलस या बीटा साइक्लोडेक्सट्रिन को मिलाकर आसानी से ५/६ रूपये में बेच रहे हैं तथा अधिकांश कंपनियों द्वारा इसे बनाये जाने से ही छुटकारा पा लिया गया जिससे एक महत्वपूर्ण एंटीबॉयोटिक जिसका आज तक दुरूपयोग नहीं हुआ है और जिसके खिलाफ रेसिस्टेन्स के मामले भी कम ही मिलते हैं उसे क्यों रोगियों से दूर किया जा रहा है ? क्या मूल्य निर्धारण की सूची को लंबा करने के लिए ही इस तरह की बातों को किया जाता है क्योंकि इसके वर्तमान स्वरुप से रोगियों को पहले ही मिलने वाली आवश्यक दवाएं यदि मिलनी ही बंद हो जाएँ तो उससे किसका भला होने वाला है ? जो कंपनियां इस तरह के किसी भी अन्य मिश्रण के साथ इस तरह की दवाओं को बेचने का काम कर रही हैं क्या उनके खिलाफ सरकार के पास कोई ठोस नीति है ?
                                         सरकार को इस समस्या से निपटने के लिए एक बार फिर से अपनी सार्वजनिक क्षेत्र की दवा इकाइयों को पुनर्जीवित करना ही होगा क्योंकि यदि दवा का कारोबार पूरी तरह से इन व्यवसायी कंपनियों के हाथों में चला गया तो आने वाले समय में सरकार के पास डीपीसीओ की एक लंबी लिस्ट ही होगी और ये सस्ती दवाएं बाज़ार में कहीं भी दिखाई ही नहीं देंगीं. सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनियों को जीवित करने से दोहरा लाभ भी होने वाला है जिससे एक तरफ नियंत्रित मूल्य वाली दवाएं रोगियों को उपलब्ध होती रहेंगीं वहीं दूसरी तरफ इन इकाइयों के द्वारा बड़ी संख्या में रोज़गार का सृजन भी किया जाता रहेगा. निजी क्षेत्र की कंपनियों के सामने तब इस बड़े बाज़ार पर कब्ज़ा करने के लिए नए सिरे से सोचने के अतिरिक्त कोई अन्य चारा भी नहीं बचेगा. एक समय था जब आइडीपीएल, हिदुस्तान एंटीबायोटिक्स और विभिन्न राज्य सरकारों की दवा कंपनियां सारे देश की ७०% मांग को पूरा कर दिया करती थीं पर बाद में इनमें समय के साथ बदलाव और आधुनिकीकरण को न अपनाये जाने के कारण तथा सरकार की तरफ से इसे बीमार उद्योग मान लेने के चलते कई तरह की समस्याएं भी सामने आयीं. आज एक नयी सरकारी दवा उत्पादन नीति के अन्तर्गत इन सभी केंद्र और राज्य की दवा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण किया जाना चाहिए और एक बड़ी कंपनी बनायीं जानी चाहिए जिससे वो पूरे देश के सरकारी अस्पतालों को दवाओं की आपूर्ति कर सके और आम लोगों को उचित मूल्य पर औषधियां उपलब्ध कराने के साथ रोजगार का सृजन भी कर सके.         
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